25 Kabir Dohe That Will Inspire You - Kabir Ke Dohe

Hey Poetry Lovers,

The first thing in my mind is that you also love Kabir Dohe like me. I always used to read Kabir poetry whenever I got some extra time. These are amazing Dohe and true proverb (Saying) which is given by Sant Kabir Das Ji.

                 So in this article, I'm gonna share the best 23 Kabir Dohe with youSo check it out and enjoy this mind-blowing poetry.

Let's get it started.


Kabir Dohe



(1)  जिन खोजा तिन पाइया, गहरे पानी पैठ, 
मैं बपुरा बूडन डरा, रहा किनारे बैठ।



kabir ke dohe



अर्थ-
जीवन में जो लोग हमेशा प्रयास करते हैं वो उन्हें जो चाहे वो पा लेते हैं,
 जैसे कोई गोताखोर गहरे पानी में जाता है तो कुछ न कुछ पा ही लेता हैं,
 लेकिन कुछ लोग गहरे पानी में डूबने के डर से यानी असफल ,
होने के डर से कुछ करते ही नहीं और किनारे पर ही बैठे रहते हैं।

(2) बड़ा हुआ तो क्या हुआ, जैसे पेड़ खजूर,
पंथी को छाया नहीं, फल लागे अति दूर।।

कबीर दास जी कहते है कि खजूर (Datepalm) के पेड़ ,
जैसा बड़ा होने से कोई फायदा नहीं है।
 क्योंकि खजूर के पेड़ से न तो पंथी को छाया (Shadow) मिलती ,
और उसके फल भी बहुत दूर लगते है जो तोड़े नहीं जा सकते।
 कबीर दास जी कहते है कि बड़प्पन के प्रदर्शन मात्र से किसी का भला नहीं होता।

(3)  कुमति कीच चेला भरा,
गुरु ज्ञान जल होय।
जनम – जनम का मोरचा,
पल में डारे धोया।।

दोहे का अर्थ-
इस दोहे में महान संत कबीरदास जी कहते हैं ,
कि कुबुद्धि रूपी कीचड़ से शिष्य भरा पड़ा है,
 जिसे धोने के लिए गुरु का ज्ञान जल है। 
वहीं गुरुदेव एक ही पल में जन्म – जन्मान्तरो की बुराई भी नष्ट करते जा रहे हैं।

(4)  बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मीलिया कोय  ।
जो दिल खोजा आपना, मुझ से बुरा न कोय।

कबीर दास जी कहते है कि मैं बुराई (Evil) की खोज में निकला ,
तो मुझे कोई बुराई (Evil) नहीं मिली, लेकिन जब मैंने,
 मेरे खुद के मन में देखा तो मुझे मुझसे बुरा कोई नहीं मिला।



kabir amritwani



(5)  दोहा – “ पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय,
                     ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय।”

अर्थ – बड़ी बड़ी पुस्तकें पढ़ कर इस जग में न जाने कितने लोग,
 मृत्यु के द्वार पहुँच गए, पर सभी विद्वान न हो सके। कबीर मानते हैं कि ,
यदि कोई प्रेम या प्यार के केवल ढाई अक्षर ही अच्छी प्रकार से पढ़ ले, 
अर्थात प्यार का वास्तविक रूप पहचान ले तो वही सच्चा ज्ञानी होगा।

(6) दोहा -कबीर कहा गरबियो, काल गहे कर केस।
ना जाने कहाँ मारिसी, कै घर कै परदेस।

अर्थ : कबीर कहते हैं कि हे मानव ! तू क्या गर्व करता है,
 काल अपने हाथों में तेरे केश पकड़े हुए है,
मालूम नहीं, वह घर या परदेश में, कहाँ पर तुझे मार डाले।

(7)  गुरु कुम्हार शिष कुंभ है,
गढ़ि – गढ़ि काढ़ै खोट।
अन्तर हाथ सहार दै,
बाहर बाहै चोट।।

दोहे का अर्थ-
इस दोहे में कवि कबीरदास जी गुरु-शिष्य की तुलना,
 कुम्हार और घड़े से कर रह रहे हैं। इसमें कवि कह रहे हैं कि गुरु, 
एक कुम्हार की तरह है और शिष्य एक घड़े की तरह है, 
अर्थात जिस तरह से कुम्हार, घड़े में अंदर से हाथ का सहारा ,
देकर और बाहर से चोट मारकर और गढ़ – गढ़ कर शिष्य की बुराई को निकलते हैं।

(8)  “या दुनिया दो रोज की, मत कर यासो हेत,
गुरु चरनन चित लाइये, जो पुराण सुख हेत।”

अर्थ-
इस संसार का झमेला दो दिन का है अतः इससे मोह सम्बन्ध न जोड़ो,
 सद्गुरु के चरणों में मन लगाओ, जो पूर्ण सुखज देने वाले हैं।



kabir das ke dohe



(9)  ऐसी बानी बोलिए, मन का आपा खोय,
 औरन को शीतल करै, आपौ शीतल होय।”

अर्थ-
मन के अहंकार को मिटाकर, ऐसे मीठे और नम्र वचन बोलो,
 जिससे दुसरे लोग सुखी हों और स्वयं भी सुखी हो।

(10) हिन्दू काहें मोहि राम पियारा, तुर्क कहें रहमाना।
आपस में दोउ लड़ी-लड़ी मुए, मरम न कोऊ जाना।।

कबीर दास जी कहते है कि हिन्दू को राम प्यारा है,
 और तुर्क (मुसलमान) को रहमान। इस बात पर हिन्दू (Hindu) और ,
मुस्लीम (Muslim) लड़ लड़ कर मौत के मुंह में जा रहे है ,
और फिर भी इनमें से कोई सच को नहीं जान पाया।

(11) गुरु  समान दाता नहीं,
याचक शीष समान।
तीन लोक की सम्पदा,
सो गुरु दीन्ही दान।।
दोहे का अर्थ-

इस दोहे में कवि कबीरदास जी ने गुरु-शिष्य के अनमोल ,
रिश्ते की व्याख्या करते हुए बताया है कि गुरु के समान कोई देने वाला नहीं है,
 अर्थात दाता नहीं हैं और शिष्य के सामान कोई लेने वाला नहीं है ,
यानि कि याचक नहीं। इस दोहे में कवि ने कहा है ,
कि गुरु ने त्रिलोक की सम्पत्ति से भी बढ़कर ज्ञान दिया है।




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(12) दोहा -जब गुण को गाहक मिले, तब गुण लाख बिकाई।
                 जब गुण को गाहक नहीं, तब कौड़ी बदले जाई।

अर्थ : कबीर कहते हैं कि जब गुण को परखने वाला ग्राहक मिल जाता है ,
तो; गुण की कीमत होती है। पर जब ऐसा ग्राहक नहीं मिलता,
 तब गुण कौड़ी के भाव चला जाता है।

(13) कहते को कही जान दे, गुरु की सीख तू लेय.
 साकट जन औश्वान को, फेरि जवाब न देय।”
अर्थ-
उल्टी-पल्टी बात बकने वाले को बकते जाने दो, 
तू गुरु की ही शिक्षा धारण कर। साकट (दुष्टों)तथा कुत्तों को उलट कर उत्तर न दो।

(14) जिन खोजा तिन पाइया, गहरे पानी पैठ।
मैं बपुरा बूडन डरा, रहा किनारे बैठ।।

कबीर दास जी (Kabir Das Ji) कहते है कि जो हमेशा प्रयास करते रहते है,
वो अपने जीवन में कुछ न कुछ पा ही लेते है। ,
जैसे गोताखोर (Pearl-Diver) गहरे पानी में जाता है तो कुछ न कुछ पा ही लेता है ,
और जो डूबने के डर से प्रयास नहीं करता है वो किनारे (Edge) पर ही रह जाता है।

(15) जो गुरु बसै बनारसी,
शीष समुन्दर तीर।
एक पलक बिखरे नहीं,
जो गुण होय शारीर।।

दोहे का अर्थ-
इस दोहे में महान संत कबीर दास जी ने कहा है ,
कि अगर गुरु वाराणसी में निवास करें और शिष्य समुद्र के पास हो,
 लेकिन शिष्य के शरीर में गुरु का गुण होगा, जो कि गुरु को एक पल भी नहीं भूलेगा।

(16)दोहा  तू  तू करु तो निकट है, दूर – दूर करु हो जाय,
                  ज्यौं गुरु राखै त्यों रहै, जो देवै सो खाय |”

अर्थ –  तू – तू करके बुलावे तो निकट जाय, 
यदि दूर – दूर करके दूर करे तो दूर जाय, 
गुर और स्वामी जैसे रखे उसी प्रकार रहे जो देवें वही खाय,
कबीर कहते है कि यही अच्छे सेवक के आचरण होने चाहिए ।

(16) धर्म किये धन ना घटे, नदी न घट्ट नीर,
 अपनी आखों देखिले, यों कथि कहहिं कबीर।”

अर्थ-
कबीर दास जी कहते हैं कि धर्म (परोपकार, दान सेवा) 
करने से धन नहीं घटना, देखो नदी सदैव बहती रहती है,
 परन्तु उसका जल घटता नहीं। धर्म करके स्वयं देख लो।



kabir dohe



(17) कहते को कही जान दे, गुरु की सीख तू लेय,
 साकट जन औश्वान को, फेरि जवाब न देय।

अर्थ-
उल्टी-पल्टी बात बकने वाले को बकते जाने दो, 
तू गुरु की ही शिक्षा धारण कर। साकट (दुष्टों)तथा कुत्तों को उलट कर उत्तर न दो।

(18) पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ, पण्डित भया न कोय।
ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पण्डित होय।।

कबीर दास जी कहते है कि कई सारे लोग बड़ी बड़ी पुस्तकें (Books) पढ़कर मृत्यु को चले गये। लेकिन कोई विद्वान (Savant) नहीं बन पाया। 
कबीर दास जी का मनाना है कि यदि कोई प्यार और प्रेम के ढाई अक्सर ही पढ़ लेता है,
 और वह प्रेम का सही मतलब जान लेता है तो वही सच्चा ज्ञानी (Wiseman) है।

(19) 
 “ऐसी बानी बोलिए, मन का आपा खोय। 
औरन को शीतल करै, आपौ शीतल होय।”

हिन्दी अर्थ-
मन के अहंकार को मिटाकर, ऐसे मीठे और नम्र वचन बोलो,
जिससे दुसरे लोग सुखी हों और स्वयं भी सुखी हो।



kabir das ji ke dohe



(19) गुरुब्रह्मा गुरुविर्ष्णुः, गुरुर्देवो महेश्वर।
गुरुः साक्षात् परब्रह्म, तस्मै श्री गुरवे नम।

दोहे का अर्थ-
इस दोहे में कबीरदास जी कहते हैं कि गुरू ही ब्रह्मा है, गुरु ही विष्णु है, 
गुरु ही भगवान शिव है। गुरु ही साक्षात परम ब्रहम है,
ऐसे गुरु के चरणों में मैं प्रणाम करता हूँ।

(20) दोहा – “निरमल गुरु के नाम सों , निरमल साधू भाय,
                    कोइला होय न ऊजला , सौ मन साबुन लाय”

अर्थ – सत्गुरू के सत्य – ज्ञान से निर्मल मनवाले लोग भी सत्य – ज्ञानी हो जाते हैं, 
लेकिन कोयले की तरह काले मनवाले लोग ,
                          मन भर साबुन मलने पर भी उजले नहीं हो सकते
 – अर्थात उन पर विवेक और बुद्धि की बातों का कोई असर नहीं पड़ता ।



(21) कबीर तहाँ न जाइये, जहाँ जो कुल को हेत,
 साधुपनो जाने नहीं, नाम बाप को लेत।

अर्थ-
गुरु कबीर साधुओं से कहते हैं कि वहाँ पर मत जाओ, 
जहाँ पर पूर्व के कुल-कुटुम्ब का सम्बन्ध हो,
 क्योंकि वे लोग आपकी साधुता के महत्व को नहीं जानेंगे, 
केवल शारीरिक पिता का नाम लेंगे ‘अमुक का लड़का आया है।

(22) अति का भला न बोलना, अति की भली न चूप,
अति का भला न बरसना, अति की भली न धूप।

कबीर दास जी कहते है कि जरूरत से ज्यादा बोलना अच्छा नहीं होता,
और जरूरत से ज्यादा चूप (Silence) रहना भी अच्छा नहीं होता,
 जैसे बहुत अधिक मात्रा में वर्षा भी अच्छी नहीं होती,
और धूप भी अधिक अच्छी नहीं होती।

(23) दोहा -कबीर लहरि समंद की, मोती बिखरे आई,
                  बगुला भेद न जानई, हंसा चुनी-चुनी खाई।

अर्थ :कबीर कहते हैं कि समुद्र की लहर में,
 मोती आकर बिखर गए बगुला उनका भेद नहीं जानता, 
परन्तु हंस उन्हें चुन-चुन कर खा रहा है. इसका अर्थ यह है,
कि किसी भी वस्तु का महत्व जानकार ही जानता है।

(24) जैसा भोजन खाइये, तैसा ही मन होय,
 जैसा पानी पीजिये, तैसी बानी सोय।”

अर्थ-
‘आहारशुध्दी:’ जैसे खाय अन्न, वैसे बने मन्न लोक प्रचलित कहावत है ,
और मनुष्य जैसी संगत करके जैसे उपदेश पायेगा, वैसे ही स्वयं बात करेगा।
 अतएव आहाविहार एवं संगत ठीक रखो।
क्या सीख मिलती है



kabir ke dohe in hindi



(25) गुरू पारस को अन्तरो, जानत हैं सब संत।
वह लोहा कंचन करे, ये करि लये महंत।।

कबीर दास जी कहते है कि गुरू और पारस-पत्थर (Philosopher’s Stone) में अंतर है,
ये अंतर सभी संत ही जानते है। पारस-पत्थर तो लोहे को सोना (Gold) ही बनाता है। 
परन्तु गुरू अपने शिष्य को अपने से भी महान बना देता है।






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